महाराष्ट्र में फीके भगवे का गाढा रंग
आलोक कुमार विद्या ददाति विनयम। संस्कृत के इस श्लोक को चरित्रार्थ करती हुई न जाने कितनी पीढियां विनय से झूमती रही। लेकिन आज यह मस्ती गुम है। विद्या विनय नहीं बल्कि ऋणदायिनी हो गई है। खास क्या आम शिक्षा भी इतनी महंगी हो गई है कि विद्यार्थी को ऋण के भंवर में डूबो रही है। लगभग सभी संस्थानिक शैक्षणिक संस्थान ऋणम लिवेत, धृतम पिवेत नहीं बल्कि ऋणम लिवेत, शिक्षा प्राप्तयेत वाली दुर्दशा का शिकार बना रही हैं। सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता दिन प्रतिदिन गिरती गई और उसकी नींव पर निजी शैक्षणिक संस्थानों का मकड़जाल पसरता गया। समय की सबसे बड़ी जरुरत शिक्षा की दशा औऱ दिशा पर गहन चिंतन की है। डॉ. राममनोहर लोहिया होते, तो निस्संदेह आज सबसे ज्यादा चिंता मंहगी और आमजन के पहुंच से दूर हुई शिक्षा व्यवस्था पर कर रहे होते। इतिहास है कि लोहिया ने कन्नौज से 1967 का लोकसभा चुनाव जीतकर समाजवादी पार्टी की नींव रखी थी, उसके आधार में सबको शिक्षा का अधिकार दिलाना था। उनके अनुयायी अगर महान समाजवादी चिंतक के इलाज का खर्च जुटाने में सफल हुए होते और काश आज लोहिया जी होते, तो निस्संदेह वह ऋण के अंधकूप में धकेले जा र